Monday 29 December 2008

सूखता दलदल...


वो क्या चाहता है?

उसे ख़ुद नही मालूम, पर वो नही जो मैं चाहती हूँ ।

तुम क्या चाहती हो?

थोड़ी सी जगह अपने लिये, थोड़ी सी ताज़ा हवा आत्मा लिये ।

वो एक अच्छा इंसान है।

कोई शक नही, पर घर में घुसने से पहले जूतों के साथ इंसानियत भी देहलीज पर रह जाती है ।

उससे बात करके देखो?

कोई फायदा नही।

क्यों?

उसे औरत देखाई नही देती और पत्नी की तो आदत होती है दूसरो को देख बहकने की...

पर तुमने तीस साल साथ गुजारे हैं अब क्या हुआ?

आपस के अन्तर से परिचित थे पर उन्हें जीने का समय नही मिला और अब समय भी है और बच्चों के जाने के बाद उनके लिये घर में जगह भी है।

आर्थिक रूप से आत्मनीर्भर हो तुम्हारे पास चोइस है।

हाँ है तो...

क्या तुम समाज से डरती हो?

नही...

पतिव्रता के ढोंग के फायदों का नुकसान उठा सकती हो ?

हाँ...

तो फ़िर देर क्योँ ? आंसू पौछों और दलदल से निकलो।

नही कर सकती...

क्यों ?

उसका दलदल और गहरा हो जायेगा और दुनिया के समस्त कमल से उसका विश्ववास उठ जायेगा।

तो तुम उसकी कमल हो...

नही, सूखता दलदल ....

फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Wednesday 17 December 2008

डिजिटल एज में सिसकता सोहाल्वी सदी का प्यार...

वो मुक्त होना चाहता है, रिश्ते से, साझेदारी से, चाहत से, प्यार से, बन्धन से, उससे साथ किए वादों से, उस पर मर मिटने की कसमों से, साथ देखे सपनो से, साथ ढूंढे आकाश से, दोनों के बीच की चांदनी से, एक दुसरे की छाया से, महक से, साँसों से, धरकनो से, वर्त्तमान से, भविष्य से, साथ चली पगडण्डी से, उसके लिये लिखी कविता से, शब्दों से, उसके ख्याल से, उसके साथ जुड़े नाम से...

उसने कहा जो हमारे बीच खूबसूरत घटना था घट चुका, जितना इस रिश्ते में हम जिंदा रह सकते थे रह लिये, जो भी एक दुसरे से बाँट सकते थे बाँट लिया, जिस मुकाम पर पहुंचना था पहुँच चुके, अब आगे सब सड़ने लगा है पके सेव की तरह, रिश्ता जिन्दा पलों से रिक्त होने लगा है अब वो सब नही रहा जो पहले था हमारे बीच, अधपके पलों के लिए एक दुसरे की गुलामी करने और सलीब उठा कर चलने से क्या फ़ायदा, मुझे एक बेहतर अवसर मिल रहा है फ़िर से जिन्दा पल जीने का, में उसे खोना नही चाहता, मैं तुम्हारी आंखों में आखें डाल कर साफ़ और सच बताना चाहता हूँ, तुम समझ सकती ही ना ऐसा सच बोलना कितना मुश्किल होता है इसके लिये कितनी हिम्मत, ईमानदारी और इंसानियत की ज़रूरत होती है यह सब आसान नही है फ़िर भी मैं तुम्हारे लिए यह सब कर रहा हूँ ...अरे! तुम इतना चुप क्यों हो?

वो शरीर पर गिरी बिजली और आखों में उमड़ते सैलाब को होंठो की मुस्कराहट में छुपा कर सोचती है डिजिटल ऐज का प्यार कितना पारदर्शी और प्रगतिशील है कांट्रेक्ट ख़त्म होने वाले दिन भी , आंखों में आखें डाल, स्माल प्रिंट में लिखी शर्तें समझा रहा है ....

पेंटिंग - अमोर & साइकी

Thursday 11 December 2008

लाइन लाइफ से गुजरती लाइफ लाइन ......


वो अक्सर जल्दी में होती है, यह उसका लंच टाइम था उसे आधे घंटे में कई काम करने थे। केमिस्ट से दवाई लेनी थी, बैंक में सेविंग से करंट अकाउंट में पैसे ट्रान्सफर करने थे, पोस्ट ऑफिस से पासपोर्ट फार्म लेना था और सुपर मार्केट से पास्ता सॉस और डबल रोटी लेनी थी। लंच टाइम में अक्सर काफ़ी शॉप हो या डेंटिस्ट का रिसेप्शन हर जगह लाइन होती है मोबाइल हो जाने से सिर्फ़ एक जगह लाइन गायब हुई है वो है टेलीफोन बूथ, वो अब एडल्ट चेट लाइन के पोस्टर लगाने के काम आते हैं या फ़िर उनमें प्रेमी पनाह लेते हैं। वैसे आम आदमी अपने जीवन के कम से कम दो- तीन साल लाइन में इंतज़ार करते निकालता है चाहे वो एअरपोर्ट पर चेक इन की लाइन हो या आफिस की लिफ्ट नीचे आने की। हाँ इसमें ट्राफिक की लाइन शामिल नही है वरना तो चार-पाँच वर्ष की लाइन लाइफ होना बड़ी बात नही है। वह दस मिनट पहले निकली कम से कम एक लाइन से तो बच जाए। वो बूट्स में घुसी ब्यूटी प्रोडक्ट के आफर पर नज़र मारे बिना फार्मेसी की तरफ़ बढ़ गई। लाइन में चार लोग थे। वह अपने नम्बर का इंतज़ार करने लगी। हर आईल में लोग भरे हुए थे मेकप और सेंडविच वाली आइल में सबसे अधिक भीड़ थी। जाहिर है मेकप की तरफ़ औरतें और सेंडविच की तरफ़ आदमी ज्यादा थे... अभी तो अक्तूबर का अंत ही है और भीड़ कितनी बढ़ गई है, क्रिसमस तक यह भीड़ बढती ही रहेगी। फार्मेसी के आलावा हर टिल पर लंबी कतारें होंगी...कल शाम को मीटिंग है घर पहुचने में देर हो जायगी, वह सुपरमार्केट से सब्जी भी उठा लेगी, वह सुपर मार्किट के टिल पर लाइन का अंदाजा लगाने लगी ...

उसका नम्बर आ गया तभी उसने अपने पीछे किसी को महसूस किया, उसकी बाजू को हल्का सा धक्का लगा और साथ ही नाक में बदबू का झोंका आया, उसके बाल बिखरे हुए थे जैसे वो अभी सो कर उठा हो, उसके गालों के गढ़े उसकी असली उमर से कहीं अधिक बता रहे थे, उसकी ट्रेक बोटम घुटनों से घीसी थी और सफेद रग़ से अब स्लेटी हो चली थी। उसने हलके रंग की टी शर्ट पहनी हुई थी जिसमें से उसकी पसलियाँ साफ़ दीख रही थी .... इससे पहले की वह लाइन में पहले होने का दावा करती...

मेथाडॉन! मेथाडॉन! काउंटर के उस तरफ़ खड़े सफेद कोट पहने व्यक्ति पर वह चिल्लाया।

"आर यू टूगेदर?" सफेद कोट वाले आदमी ने उन दोनों पर नज़र डालते हुए पूछा?

उसने उसकी तरफ़ सर घुमाया, ऊपर से नाचे तक निगाह डाली, नीली आखों में परिचित उपेक्षा चमकी जो सिर्फ़ कत्थई आखों को नजर आई।

"सर्टेनली नॉट"....वो मुह बिचका, माथे में सिलवटें डाल, ऊँची आवाज़ में बोला और गुस्से से सफेद कोट पहने व्यक्ति की तरफ़ देखा.... वो अब उसकी मेथाडॉन कंप्युटर को फीड कर रहा था ...कुछ क्षण को उसका असर उसे अपने भीतर महसूस हुआ ... जैसे हजारों निगाहें उस पर अंगुली उठा रही हों।

वह पीछे मुडी, उसकी आखें पीछे वाले से टकराई वह सर हिला रहा था... होंठो पर फीकी सी हँसी ला वह अपने नम्बर का इंतज़ार करने लगी...

Tuesday 2 December 2008

दहशत और मातम के चेहरे ना जीए ना मरे..

यह काम आसान था

पर उन्हें मेहमानों का ख्याल था,

वो जूझ रहे थे जान से

केमरे और माइक को पड़ी थी

हर एँगल की कवरेज़ से,

चुटकी भर नफरत को दी

अरबों आंखों ने सेक,

क्यों ना हों उनके होंसले बुलंद

हर कमरे, हर लाबी, हर घड़ी मिली

उन्हें सफलता की गंध।

पी ऍम ने भी दी दुहाई,

जैसे आँगन में

घूमती बिल्ली भगाई,

हमने भी रिमोट कंट्रोल को साक्षी मान,

बहती गंगा में डूबकी ले

पुलिस और नेता के मुहँ पर चपत लगाई।

बार-बार कबूतर उड़े,

सौ साल में पहली बार,

उनके फाइव स्टार घर

धुएं से भरे,

भीतर छोड़े बच्चों की खातिर,

हर गोली के बाद

वो वापस मुड़े,

शहर में दहशत और मातम से

पुते चेहरे ना जीये- ना मरे...